November 3, 2011

नारी मन की थाह


सदियों से करते आए हो

खामोश तुम नारी को

आज भी यही चाहत है

खामोशी के सन्नाटे में

बस तुम्हारी ही आवाज़

गुंजित  रहे ..

सुकून मिलता है तुम्हें

दंभ  अपना दिखा कर

तुम्हारी चाहत के अनुरूप ही

सुर  हमारा बदलता  रहे

ख्वाहिशों को

अंजाम देने के लिए

कभी मनुहार करते हो

पर उसमें भी तो

आदेश का स्वर भरते हो

दिखाते तो हो जैसे

ख़ुशी के इन्द्रधनुष

पर हर धनुष पर

एक बाण भी रखते हो

आहत हो जाती हैं

भावनाएं कोमल मन की

बिखर जाती हैं जैसे

पत्ती - पत्ती किसी गुल की

तुम्हारे अहम् तले पंखुरियां

रौंद  दी  जाती हैं

और नारी फिर भी

उफ़  तक नहीं कर पाती है

जूझती रहती है वो

अपने अंतर्मन से

सिलती रहती है ज़ख्म

सहनशीलता के फ़न  से 

उसके इस फ़न  को तुम

मान लेते हो उसकी  कमजोरी

और समझते रहते हो कि

ये है उसकी मजबूरी

काश -

कभी उसके मन की

पहली पर्त ही खोल पाते

तो नारी के मन की तुम

थाह  ही पा जाते......
 
 
 
 
 

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