भला हिन्दू धर्म का कौन सा ऎसा व्यक्ति होगा, जो कि सत्यनारायण की कथा से परिचित न हो.इस कथा की लोकप्रियता का आंकलन आप इसी बात से कर सकते हैं कि यह कथा उतर भारत के हिन्दू परिवारों के तो जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है.हालाँकि धर्म शास्त्रों में इस व्रत कथा को कोई स्थान नहीं, किन्तु रूढ-धर्म में इसका स्थान बेहद उच्च है. लोगों की यह धारणा है कि इस कथा से मनोकामनाऎँ सिद्ध होती हैं. लेकिन इस कथा में जो एक अजीब सी बात है और जिसके बारे में अक्सर बहुत से लोगों के मन में शंका और जिज्ञासा भाव भी रहता हैं, वो ये कि-----इसके सम्पूर्ण अध्यायों में सिर्फ कथा महात्मय का ही वर्णन पढने को मिलता है, मूल कथा क्या है ? यह कहीं नहीं मिलता. इस व्रत में सत्यनारायण की पूजा, कथा-श्रवण और प्रसाद भक्षण ऎसे तीन मधुर विभाग हैं. शायद इसी कारण इस व्रत में सत्य की जो महिमा है, वह लोगों को ध्यान में नहीं आती. लोगों का ध्यान उस ओर आकर्षित करने के लिए यह एक छोटा सा प्रयास किया जा रहा है. इस रहस्य को पढने से पूर्व जिन्हे सत्यनारायण की कथा मालूम न हो, उन्हे उसे जान लेना परम आवश्यक है.
धर्म मानव ह्रदय की अत्यन्त उच्च वृ्ति है; और वह मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में व्यापत रहती है. हमारा जीवन जैसा ही उत्तम, मध्यम अथवा हीन होता है, वैसा ही रूप हम धर्म को भी देते हैं. बुद्धि-प्रधान तार्किक लोग जहाँ धर्म-वृति को तत्वज्ञान का दार्शनिक रूप देते हैं, प्रेमी लोग उपान का रूप देते हैं, कर्मप्रधान कला-रसिक लोग पूजा-अर्चना इत्यादि तान्त्रिक विधियों द्वारा धर्म-वृति का पोषण करते हैं, तहाँ साधारण अज्ञ जन-समुदाय कथा-कीर्तन द्वारा ही धर्म के उच्च सिद्धान्तों का आंकलन कर सकता है.
धर्माचरण के फल के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त् लागू होता है. धर्माचरण का फल अन्तस्थ और उच्च होता है, यह बात जिनके ध्यान में नहीं आ सकती, उनको सन्तोपार्थ पौराणिक कथाओं द्वारा बाह्य फल दिखलाने पडते हैं. धर्मतत्व कितने ही ऊँचें हों, किन्तु यदि उन्हे समाज में रूढ करना हो तो उन्हे समाज की भूमिका प्रयन्त नीचे उतरना पडता है. भगवान बुद्ध के उपदिष्ट तत्व उच्च, उदात्त और नैतिक थे, किन्तु जब उन्हे देवी-देवता, पूजा-अर्चना तथा मन्त्र-तन्त्र आदि का तान्त्रिक स्वरूप देकर महायान-पन्थ अवतरित हुआ, तभी वे तत्व अथवा उनका अंश आधे से अधिक एशिया को भाया. यह सत्यनारायण का व्रत भी इसी किस्म का उदाहरण है. इस व्रत के विस्तार और लोकप्रियता को देखकर यह कहने में कोई बाधा नहीं है कि लोगों के ह्रदय में निवास करने वाले धर्म का स्वरूप इस व्रत में दृष्टिगोचर होता है.
संसार का बहुत सा व्यवहार अल्प-प्राण लोगों के हाथ में होता है. बहु-जन-समाज की सत्य पर श्रद्धा बहुत थोडी होती है. संसार में चाहे जैसी हानि को सहन करने योग्य पुरूषार्थ लोगों में नहीं दिखाई देता. सत्यासत्य का कोई-न-कोई विधि-निषेध रक्खे बिना क्षणिक और दृष्यमान लाभ के लिए लोग पल में वचन भंग कर डालते हैं, नियमों को लात मार देते हैं और झूठे को सच्चा कर दिखलाते हैं. अतएव यह एक भारी प्रश्न है कि कामना-सिद्धि के लिए सत्य को धत्ता बताने वाले अज्ञ जनों को सत्य की लगन किस तरह लगनी चाहिए और ऎसी श्रद्धा किस तरह दृड करनी चाहिए, कि------सत्य-सेवन ही से अन्त में सर्वकामना-सिद्धि होती है. साधु-सन्तों नें, नियमों की रचना करने वालों नें तथा समाज के नेताओं नें अनेकों प्रकार से प्रयत्न कर देखे हैं. सत्यनारायण-व्रत के प्रवर्तक नें इस प्रश्न को अपनी शक्ति और बुद्धि के अनुसार सत्यनारायण की पूजा और कथा द्वारा हल करने का प्रयत्न किया है.
लोगों में सत्यनारायण की पूजा प्रचलित करने से दो हेतु सिद्ध होते हैं. लोग सत्य-सेवी हों यह एक उदेश्य; और सत्य की महिमा समाज में निरन्तर गाई जाया करे यह दूसरा उदेश्य हुआ. इस पूजा का नाम उत्सव या अनुष्ठान नहीं वरन् व्रत रक्ख गया है, यह बात भी इस जगह ध्यान में रखने योग्य है. उत्सव में हम लोग किसी भूत-वृतान्त का अथवा किसी धार्मिक तत्व का उत्साहपूर्वक सहर्ष स्मरण करते हैं, और व्रत में हम अपना जीवन उच्चतर बनाने के लिए किसी दीक्षा को ग्रहण करते हैं.
सत्यनारायण की कथा श्रवण करने और स्वादिष्ट प्रसाद भक्षण करने मात्र से सिर्फ यही कहा जाएगा कि घर में सत्यनारायण का कीर्तन हुआ. पर वह व्रत किसी तरह नहीं माना जा सकता. जिसे सत्यनारायण का व्रत करना हो उसे सर्वदा, सभी स्थानों में और सभी प्रसंगों में सत्य के आचरण की और अवसर आ पडने पर सभी लोगों को सत्य का महत्व समझा कर सत्य का कीर्तन करने की, दीक्षा ग्रहण करनी होगी. यदि इस तरह व्रताचरण किया जाए तो ही कर्ता को सत्यनारायण व्रत के करने का फल प्राप्त हो सकता है अन्यथा नहीं.
संसार में सभी लोग सामर्थ्य और सम्पति चाहते हैं. धर्म कहता है कि "तुम्हे भूतदया और सत्य-आचरण के द्वारा ही सच्ची सामर्थ्य और सम्पति प्राप्त हो सकती है". पुराणों नें इसी सिद्धान्त को एक सुन्दर रूपक देकर हमारे मन में बिठाया है. पुराणों का कथन है कि सामर्थ्य और सम्पत्ति, अर्थात शक्ति और लक्ष्मी, क्रमश: कल्याण की अभिलाषा और सत्य अर्थात शिव और सत्यनारायण के अधीन रहते हैं; क्योंकि शक्ति तो शिव की पत्नि है, और लक्ष्मी सत्यनारायण की. यदि तुम पति की आराधना करोगे तो पत्नि तुम पर अवश्य ही अनुग्रह करेगी. इस तरह धन, धान्य, सन्तति और सम्पत्ति आदि ऎहिक लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को सत्य की अर्थात सत्यनारायण की आराधना करना इस व्रत में कहा गया है.
हिन्दूधर्म और हिन्दू-नीतिशास्त्र में सत्य का बहुत ही व्यापक अर्थ किया गया है. श्रीवेदव्यास नें महाभारत में सत्य के तेरह प्रकार कल्पित किए हैं. हिन्दू-शास्त्र और पुराणों को उलट-पुलट कर देखा जाए तो परस्पर बिल्कुल ही विभिन्न ऎसी तीन वस्तुऎं सत्य शब्द में समाविष्ट होती हैं.
पहली वस्तु----सत्य अर्थात यथार्थ कथन. जो बात जैसी हो, हम उसे जिस स्वरूप में जानते हों, अथवा जिस स्वरूप में बनी हुई हमने देखी हो, जिस स्वरूप में हमने उसकी विवेचना की हो, उसे ठीक ज्यों-की-त्यों कह देने का नाम है सत्य.
दूसरी वस्तु----सत्य अर्थात ऋतम, सृ्ष्टि का नियम अथवा किसी भी महाकार्य का विधान. 'सत्य ही से सूर्य उदय होता है','सत्य ही से वायु बहती है','सत्य ही से यह दुनिया चल रही है' इत्यादि शास्त्र-वचनों का अर्थ अनुलंघनीय नियम होता है.
तीसरी वस्तु-----सत्य अर्थात प्रतिज्ञा पालन. यहाँ सत्य के मानी हैं मुँह से एक बार निकले वचन का पालन करने की टेक. एक बार मुँह से निकले वचन को व्यर्थ न जाने देने की टेक. इसी सत्य के लिए कर्ण नें अपने कवच-कुण्डल दे दिए थे. इसी सत्य के लिए हरिश्चन्द्र नें राज्य का दान कर दिया और इसी सत्य के लिए श्रीराम बनवास गए थे. और तो क्या मातृभक्त पांडवों नें माता के वचन को सत्य करने के लिए एक द्रौपदी के साथ पाँचों भाईयों का विवाह कर लेने जैसे निन्दनीय कर्म को भी कर डाला. (लेकिन आजकल हमारी सत्य की धारणा अधिक विशुद्ध हो गई है. आज के जमाने में माँ के मुँह से निकले वचन को सत्य करने के लिए यदि पाँच भाई सम-विवाह करने को उद्यत हों जाएं, तो हम उन्हे मूर्ख और अय्याश कह डालेंगें.! अस्तु! पर यहाँ तो हम पुरानी धारणा के अनुसार सत्यनारायण की कथा का रहस्य खोलने चले हैं)
जन-समुदाय की दो वृतियाँ खास तौर पर बलवती होती हैं----लोभ और भय. इन दोनों वृतियों से लाभ उठाकर सत्यनारायण के कथाकार नें सत्य की महिमा गाई है. यदि आप सत्य का सेवन करें तो आपको सन्तति और सम्पत्ति आदि सभी सामग्री मिल जाएगी, समस्त संकट दूर होगें और मनोकामनाऎं परिपूर्ण होंगीं; यह तो हुआ लाभ. सत्य को भूल जाने से, सत्य को छिपाने से, तुरन्त ही आपके बाल-बच्चे मर जायेंगे, धन-धान्य का नाश हो जाएगा, दामाद पानी में डूब जाएगा, यदि राजा किसी को अन्याय से जेल में ठूँस देगा तो उसकी राजसत्ता नष्ट हो जाएगी और उस पर सभी तरह के संकट उमड पडेंगें; यह हुआ भय.
सत्य का फल सबके लिए समान फलप्रद है. सत्य-पालन का धर्म सभी वर्णों के लिए है, ऎसा बतलाने के लिए इस कथा में ब्राह्मण, राजा, बनिया और ग्वाला तथा लकडहारे लाए गए हैं और ऎसा मालूम होता है कि ऊपर बतलाये हुए सत्य के तीनों अर्थ सत्यव्रत में अभिप्रेत हैं. साधु और उसका दामाद दोनों अपनी की हुई प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं; इसलिए उनपर सत्यदेव का कोप होता है. उसी के परिणामस्वरूप राजा चन्द्रकेतु भी उन दोनों से परामुख होता है. इन दुर्दैवी लोगों की स्त्रियों के ह्रदय में प्रतिज्ञा पालन का धर्म-भाव जागृत होते ही तुरन्त चन्द्रकेतु राजा के ह्रदय में भी न्याय-भाव जागृत होता है. साधु और उसका दामाद चोर-भय से दण्डी बाबा के सम्मुख झूठ बोलते हैं, इसलिए हमारे कथाकार उनके मिथ्याभाषण के कारण उन के सर्वस्व नाश हो जाने का अनुभव दिखलाकर निनाश-भय द्वारा उन्हे सत्यनिष्ठ बनाते हैं. कलावति पति-दर्शन के मोह में पडकर सत्यनारायण व्रत के नियम का भंग करती है. तुंगध्वज राजा भी अपनी वर्णोच्चता के अभिमान और सता के मद में सत्य का अनादर करता है. इससे कलावति का पति और तुंगध्वज का राज्य नष्ट हो जाता है, किन्तु उन का वह मोह और वह मद नष्ट हो जाने पर फिर से उनको अनन्त सौभाग्य प्राप्त हो जाता है. ऎसा बताकर कथाकार लोगों से कहते हैं, कि भाईयो! सच ही बोलो; अपने वचन का भंग मत करो तथा समाज के अथवा नैसर्गिक सर्वव्यापी नियमों का भंग मत करो, उनका उललंघन न करो. यदि इस तरह का व्यवहार करोगे तो तुम्हारा ऎहिक और पारलौकिक कल्याण अवश्य होगा. क्योंकि जो सत्य पर चलता है वह-------सर्वान कामानवाप्नोति, प्रेत्य सायज्य माप्नुयात !!( जीते जी सभी कामनाओं को पा जाता है और मरने पर सायुज्य, मोक्ष पाता है)
इस लोक-काव्य में सत्य को सर्व-रंग परित्यागी दण्डी का स्वरूप दिया है, यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है. सत्यपूर्वक चलने से सम्पूर्ण वासनाओं का क्षय होकर मनुष्य में सन्यस्तवृति आ जाती है, और सत्याचरणी मनुष्य में अन्त:स्थ वृतियों के और बाह्य समाज के नियमन अथवा दण्डन करने की दण्डी शक्ति आ जाती है, यह इस कथा के रचनाकार नें बडी सुन्दरता के साथ सूचित किया है. सत्यनारायण की पूजा में सत्य का स्वरूप और महिमा बतलाने वाले कितने ही श्लोक बडे उच्च भाव से भरे हुए हैं, उन्हे यहाँ देकर श्रीसत्यनारायण की यथामति की गई इस उपासना को मैं यहाँ समाप्त करता हूँ------
नारायणस्त्वमेवासि सर्वेषां च ह्रदि स्थित:
प्रेरक: पैर्यमाणानां त्वया प्रेरित मानस: !!
त्वदाज्ञां शिरसा धृत्वा भजामि जनपावनम
नानोपासनमार्गणां भावकृद भावबोधक : !!
धर्म मानव ह्रदय की अत्यन्त उच्च वृ्ति है; और वह मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में व्यापत रहती है. हमारा जीवन जैसा ही उत्तम, मध्यम अथवा हीन होता है, वैसा ही रूप हम धर्म को भी देते हैं. बुद्धि-प्रधान तार्किक लोग जहाँ धर्म-वृति को तत्वज्ञान का दार्शनिक रूप देते हैं, प्रेमी लोग उपान का रूप देते हैं, कर्मप्रधान कला-रसिक लोग पूजा-अर्चना इत्यादि तान्त्रिक विधियों द्वारा धर्म-वृति का पोषण करते हैं, तहाँ साधारण अज्ञ जन-समुदाय कथा-कीर्तन द्वारा ही धर्म के उच्च सिद्धान्तों का आंकलन कर सकता है.
धर्माचरण के फल के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त् लागू होता है. धर्माचरण का फल अन्तस्थ और उच्च होता है, यह बात जिनके ध्यान में नहीं आ सकती, उनको सन्तोपार्थ पौराणिक कथाओं द्वारा बाह्य फल दिखलाने पडते हैं. धर्मतत्व कितने ही ऊँचें हों, किन्तु यदि उन्हे समाज में रूढ करना हो तो उन्हे समाज की भूमिका प्रयन्त नीचे उतरना पडता है. भगवान बुद्ध के उपदिष्ट तत्व उच्च, उदात्त और नैतिक थे, किन्तु जब उन्हे देवी-देवता, पूजा-अर्चना तथा मन्त्र-तन्त्र आदि का तान्त्रिक स्वरूप देकर महायान-पन्थ अवतरित हुआ, तभी वे तत्व अथवा उनका अंश आधे से अधिक एशिया को भाया. यह सत्यनारायण का व्रत भी इसी किस्म का उदाहरण है. इस व्रत के विस्तार और लोकप्रियता को देखकर यह कहने में कोई बाधा नहीं है कि लोगों के ह्रदय में निवास करने वाले धर्म का स्वरूप इस व्रत में दृष्टिगोचर होता है.
संसार का बहुत सा व्यवहार अल्प-प्राण लोगों के हाथ में होता है. बहु-जन-समाज की सत्य पर श्रद्धा बहुत थोडी होती है. संसार में चाहे जैसी हानि को सहन करने योग्य पुरूषार्थ लोगों में नहीं दिखाई देता. सत्यासत्य का कोई-न-कोई विधि-निषेध रक्खे बिना क्षणिक और दृष्यमान लाभ के लिए लोग पल में वचन भंग कर डालते हैं, नियमों को लात मार देते हैं और झूठे को सच्चा कर दिखलाते हैं. अतएव यह एक भारी प्रश्न है कि कामना-सिद्धि के लिए सत्य को धत्ता बताने वाले अज्ञ जनों को सत्य की लगन किस तरह लगनी चाहिए और ऎसी श्रद्धा किस तरह दृड करनी चाहिए, कि------सत्य-सेवन ही से अन्त में सर्वकामना-सिद्धि होती है. साधु-सन्तों नें, नियमों की रचना करने वालों नें तथा समाज के नेताओं नें अनेकों प्रकार से प्रयत्न कर देखे हैं. सत्यनारायण-व्रत के प्रवर्तक नें इस प्रश्न को अपनी शक्ति और बुद्धि के अनुसार सत्यनारायण की पूजा और कथा द्वारा हल करने का प्रयत्न किया है.
लोगों में सत्यनारायण की पूजा प्रचलित करने से दो हेतु सिद्ध होते हैं. लोग सत्य-सेवी हों यह एक उदेश्य; और सत्य की महिमा समाज में निरन्तर गाई जाया करे यह दूसरा उदेश्य हुआ. इस पूजा का नाम उत्सव या अनुष्ठान नहीं वरन् व्रत रक्ख गया है, यह बात भी इस जगह ध्यान में रखने योग्य है. उत्सव में हम लोग किसी भूत-वृतान्त का अथवा किसी धार्मिक तत्व का उत्साहपूर्वक सहर्ष स्मरण करते हैं, और व्रत में हम अपना जीवन उच्चतर बनाने के लिए किसी दीक्षा को ग्रहण करते हैं.
सत्यनारायण की कथा श्रवण करने और स्वादिष्ट प्रसाद भक्षण करने मात्र से सिर्फ यही कहा जाएगा कि घर में सत्यनारायण का कीर्तन हुआ. पर वह व्रत किसी तरह नहीं माना जा सकता. जिसे सत्यनारायण का व्रत करना हो उसे सर्वदा, सभी स्थानों में और सभी प्रसंगों में सत्य के आचरण की और अवसर आ पडने पर सभी लोगों को सत्य का महत्व समझा कर सत्य का कीर्तन करने की, दीक्षा ग्रहण करनी होगी. यदि इस तरह व्रताचरण किया जाए तो ही कर्ता को सत्यनारायण व्रत के करने का फल प्राप्त हो सकता है अन्यथा नहीं.
संसार में सभी लोग सामर्थ्य और सम्पति चाहते हैं. धर्म कहता है कि "तुम्हे भूतदया और सत्य-आचरण के द्वारा ही सच्ची सामर्थ्य और सम्पति प्राप्त हो सकती है". पुराणों नें इसी सिद्धान्त को एक सुन्दर रूपक देकर हमारे मन में बिठाया है. पुराणों का कथन है कि सामर्थ्य और सम्पत्ति, अर्थात शक्ति और लक्ष्मी, क्रमश: कल्याण की अभिलाषा और सत्य अर्थात शिव और सत्यनारायण के अधीन रहते हैं; क्योंकि शक्ति तो शिव की पत्नि है, और लक्ष्मी सत्यनारायण की. यदि तुम पति की आराधना करोगे तो पत्नि तुम पर अवश्य ही अनुग्रह करेगी. इस तरह धन, धान्य, सन्तति और सम्पत्ति आदि ऎहिक लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को सत्य की अर्थात सत्यनारायण की आराधना करना इस व्रत में कहा गया है.
हिन्दूधर्म और हिन्दू-नीतिशास्त्र में सत्य का बहुत ही व्यापक अर्थ किया गया है. श्रीवेदव्यास नें महाभारत में सत्य के तेरह प्रकार कल्पित किए हैं. हिन्दू-शास्त्र और पुराणों को उलट-पुलट कर देखा जाए तो परस्पर बिल्कुल ही विभिन्न ऎसी तीन वस्तुऎं सत्य शब्द में समाविष्ट होती हैं.
पहली वस्तु----सत्य अर्थात यथार्थ कथन. जो बात जैसी हो, हम उसे जिस स्वरूप में जानते हों, अथवा जिस स्वरूप में बनी हुई हमने देखी हो, जिस स्वरूप में हमने उसकी विवेचना की हो, उसे ठीक ज्यों-की-त्यों कह देने का नाम है सत्य.
दूसरी वस्तु----सत्य अर्थात ऋतम, सृ्ष्टि का नियम अथवा किसी भी महाकार्य का विधान. 'सत्य ही से सूर्य उदय होता है','सत्य ही से वायु बहती है','सत्य ही से यह दुनिया चल रही है' इत्यादि शास्त्र-वचनों का अर्थ अनुलंघनीय नियम होता है.
तीसरी वस्तु-----सत्य अर्थात प्रतिज्ञा पालन. यहाँ सत्य के मानी हैं मुँह से एक बार निकले वचन का पालन करने की टेक. एक बार मुँह से निकले वचन को व्यर्थ न जाने देने की टेक. इसी सत्य के लिए कर्ण नें अपने कवच-कुण्डल दे दिए थे. इसी सत्य के लिए हरिश्चन्द्र नें राज्य का दान कर दिया और इसी सत्य के लिए श्रीराम बनवास गए थे. और तो क्या मातृभक्त पांडवों नें माता के वचन को सत्य करने के लिए एक द्रौपदी के साथ पाँचों भाईयों का विवाह कर लेने जैसे निन्दनीय कर्म को भी कर डाला. (लेकिन आजकल हमारी सत्य की धारणा अधिक विशुद्ध हो गई है. आज के जमाने में माँ के मुँह से निकले वचन को सत्य करने के लिए यदि पाँच भाई सम-विवाह करने को उद्यत हों जाएं, तो हम उन्हे मूर्ख और अय्याश कह डालेंगें.! अस्तु! पर यहाँ तो हम पुरानी धारणा के अनुसार सत्यनारायण की कथा का रहस्य खोलने चले हैं)
जन-समुदाय की दो वृतियाँ खास तौर पर बलवती होती हैं----लोभ और भय. इन दोनों वृतियों से लाभ उठाकर सत्यनारायण के कथाकार नें सत्य की महिमा गाई है. यदि आप सत्य का सेवन करें तो आपको सन्तति और सम्पत्ति आदि सभी सामग्री मिल जाएगी, समस्त संकट दूर होगें और मनोकामनाऎं परिपूर्ण होंगीं; यह तो हुआ लाभ. सत्य को भूल जाने से, सत्य को छिपाने से, तुरन्त ही आपके बाल-बच्चे मर जायेंगे, धन-धान्य का नाश हो जाएगा, दामाद पानी में डूब जाएगा, यदि राजा किसी को अन्याय से जेल में ठूँस देगा तो उसकी राजसत्ता नष्ट हो जाएगी और उस पर सभी तरह के संकट उमड पडेंगें; यह हुआ भय.
सत्य का फल सबके लिए समान फलप्रद है. सत्य-पालन का धर्म सभी वर्णों के लिए है, ऎसा बतलाने के लिए इस कथा में ब्राह्मण, राजा, बनिया और ग्वाला तथा लकडहारे लाए गए हैं और ऎसा मालूम होता है कि ऊपर बतलाये हुए सत्य के तीनों अर्थ सत्यव्रत में अभिप्रेत हैं. साधु और उसका दामाद दोनों अपनी की हुई प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं; इसलिए उनपर सत्यदेव का कोप होता है. उसी के परिणामस्वरूप राजा चन्द्रकेतु भी उन दोनों से परामुख होता है. इन दुर्दैवी लोगों की स्त्रियों के ह्रदय में प्रतिज्ञा पालन का धर्म-भाव जागृत होते ही तुरन्त चन्द्रकेतु राजा के ह्रदय में भी न्याय-भाव जागृत होता है. साधु और उसका दामाद चोर-भय से दण्डी बाबा के सम्मुख झूठ बोलते हैं, इसलिए हमारे कथाकार उनके मिथ्याभाषण के कारण उन के सर्वस्व नाश हो जाने का अनुभव दिखलाकर निनाश-भय द्वारा उन्हे सत्यनिष्ठ बनाते हैं. कलावति पति-दर्शन के मोह में पडकर सत्यनारायण व्रत के नियम का भंग करती है. तुंगध्वज राजा भी अपनी वर्णोच्चता के अभिमान और सता के मद में सत्य का अनादर करता है. इससे कलावति का पति और तुंगध्वज का राज्य नष्ट हो जाता है, किन्तु उन का वह मोह और वह मद नष्ट हो जाने पर फिर से उनको अनन्त सौभाग्य प्राप्त हो जाता है. ऎसा बताकर कथाकार लोगों से कहते हैं, कि भाईयो! सच ही बोलो; अपने वचन का भंग मत करो तथा समाज के अथवा नैसर्गिक सर्वव्यापी नियमों का भंग मत करो, उनका उललंघन न करो. यदि इस तरह का व्यवहार करोगे तो तुम्हारा ऎहिक और पारलौकिक कल्याण अवश्य होगा. क्योंकि जो सत्य पर चलता है वह-------सर्वान कामानवाप्नोति, प्रेत्य सायज्य माप्नुयात !!( जीते जी सभी कामनाओं को पा जाता है और मरने पर सायुज्य, मोक्ष पाता है)
इस लोक-काव्य में सत्य को सर्व-रंग परित्यागी दण्डी का स्वरूप दिया है, यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है. सत्यपूर्वक चलने से सम्पूर्ण वासनाओं का क्षय होकर मनुष्य में सन्यस्तवृति आ जाती है, और सत्याचरणी मनुष्य में अन्त:स्थ वृतियों के और बाह्य समाज के नियमन अथवा दण्डन करने की दण्डी शक्ति आ जाती है, यह इस कथा के रचनाकार नें बडी सुन्दरता के साथ सूचित किया है. सत्यनारायण की पूजा में सत्य का स्वरूप और महिमा बतलाने वाले कितने ही श्लोक बडे उच्च भाव से भरे हुए हैं, उन्हे यहाँ देकर श्रीसत्यनारायण की यथामति की गई इस उपासना को मैं यहाँ समाप्त करता हूँ------
नारायणस्त्वमेवासि सर्वेषां च ह्रदि स्थित:
प्रेरक: पैर्यमाणानां त्वया प्रेरित मानस: !!
त्वदाज्ञां शिरसा धृत्वा भजामि जनपावनम
नानोपासनमार्गणां भावकृद भावबोधक : !!
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