झुण्ड से छूटा, साथ से रूठा,
एक था बिचड़ा गिरा यहाँ।
गीति के नवजात शिशु को,
मरने देती क्षिति कहाँ।
पावस में घिर आते शत घन,
बाकि दिव सुथराई के कण।
धमनी-धमनी स्थान रुधिर के,
माँ का संचित नेह बहा।
सूर्य रश्मियाँ पुष्ट बनाती,
विधु की किरणे थीं दुलरातीं।
और मृदुल नभ के तारागण,
हर अठखेली पर मुस्काते।
तृण के नोक ललाट चूमते,
अलि धावन के बाद घूमते।
वल्लरियाँ थीं दीठ बचातीं,
गिरते पर्णों ने मीत कहा।
दिवस बीतते, रात बीतती,
शीतलता औ घाम बीतती।
बालक ने आशीष मान कर,
सबको दे सम्मान सहा।
बारी-बारी सब ऋतुओं ने,
भांति-भांति के पाठ सिखाये।
पराक्रमी कर्ष-मर्ष कौशल पर,
वानीर झुण्ड ने हाथ उठाये।
गभुआरे नन्हे कोमल तन,
को सालस थपकाती गन्धवह।
चीं-चीं मर्मर क्षिप्र ही गढ़ कर,
खग कीटों ने गीत कहा।
खेचर नित आशीष वारते,
गहते हाथ, औ मूंज बाँधते।
"रागों में तुम वीतराग हो!"
"हो अलोल!"- यह बोल उचारते।
मौलसिरी ने आसव छिडका,
नीप-तमाल ने नेह से झिड़का।
आम छोड़ के उतरी कोयल,
कान में गुपचुप प्रीत कहा।
नियति-नटी अपनी गति खेली,
सुभट शाख किंकिणियाँ फूलीं।
जिसने देखा वही अघाया,
"उत्तरीय तुम्हारा स्वर्ण!"- कहा।
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